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________________ बहुत चलती है पर क्रियात्मक रूप से जिसका पठन-पाठन दिनानुदिन क्षी और क्षीणतर होता जा रहा है, का तेरापय सघ में आज भी उत्तरोत्तर विकासमान प्रचलन है। शताधिक साधु, साध्विया सस्कृत मे पारंगत हैं। वे केवल अध्ययन और अनुशीलन ही नही, विविध प्रकार के अभिनव साहित्य के निर्माण मे भी तत्पर और कुशल है । तेरापय के वर्तमान अधिनायक युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के निर्देशन और मार्ग-दर्शन मे सरतविद्या के अभिवर्धन-उन्नयन का यह क्रम सतत प्रगतिशील है। तेरापथ मे हुए मस्कृतिविद्या के विकास के इतिहास का पर्यवेक्षण करे तो यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि परमाराध्य आचार्य श्री तुलसी के गुरुवर्य, तरापथ के अप्टमाचार्य प्रात स्मरणीय श्री कालूगणी ने इसमे वहुत वडा कार्य किया। उन्होंने जीवन भर इस बात के लिए निरन्तर प्रयल किया कि उनके धर्म-सच मे सस्कृत विद्या के विशिष्ट अध्येता और वेत्ता साधु तयार हो। आचार्य श्री कालूणी पल्लवग्राही पाडित्य के पक्षपाती नही थे, वे ठोस तथा मूलग्राही ज्ञान को महत्त्व देते थे। इसी लिए मस्कृत के अध्ययन मे उनका व्याकरण के ५०न पर बहुत जोर था। नि सन्देह यह एक अनुकरणीय तथ्य है कि उन्होंने प्रौढावस्या मे स्वय व्याकरण का गभीर अध्ययन किया एवं अपने अन्तवासी साधु-साध्वियो को इस ओर प्रेरित किया। व्याकरण शब्दो के शुद्ध प्रयोग की शिक्षा देता है। प्रयोग के लिए प्रयोक्ता के पास शब्दो का बहुत अच्छा संग्रह होना चाहिए । आचार्य श्री कालूगणी ने इसका अनुभव किया और कोश के अध्ययन तथा कठस्यीकरण का विशेष क्रम उन्होने चालू किया। फलत अनेक माधु-साध्वियो ने आचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित अभिधान-चिन्तामणि आदि कोपो को कलान कर लिया। सस्कृत व्याकरण के साथ-साय प्राकृत व्याकरण के अध्ययन पर भी आचार्य श्री कालूगणी ने वल दिया । आचार्य श्री कालूगणी का शासनकाल तेराय मे वास्तव में विद्या-विकास का काल कहा जा सकता है। मस्कृत, प्राकृत, कोश आदि के ठोस अध्ययन के पश्चात् तेरापथ मे एक ऐसा का 1 शुरू होता है, जब मौलिक साहित्य, विशेषत लक्षण-ग्रन्थो का सर्जन चालू हुआ। उसके अन्तर्गत पृष्ट ग्रन्थो मे मुनि श्री पायमल्लजी द्वारा रचित भिक्षुशनानुशासन का अपना अनन्य स्थान है । मुनि थी पायमल्लजी ने देश मे प्रचलित, अप्रचलित अनेक व्याकरणो का गभीर परिशीलन किया तथा सरलतम, फोमलतम शैली मे इसकी रचना की। इस प्रसग पर आशुकविरत्न, आयुवदाचार्य प० रघुनन्दन शर्मा (अलीगड, उत्तरप्रदेश) का नाम बडे आदर के साथ स्मरणीय है, जो मुनि श्री के मा व्याकरण-प्रणयन के ऐतिहासिक कार्य मे अनन्य सहयोगी रहे नया दानुशासन पर वृहद् वृत्ति की रचना भी उन्होने की। निक्षुदानुजामन लिंगानुशासन, णादि, न्यायदर्पण आदि के साथ एक सम्पन्न व्याकरण है। रापय मे इसका पठन-पाठन चालू हुआ। एक प्रकार
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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