________________
१०४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
वृत्ताविति । सूत्रार्थप्रधानो ग्रन्थो भट्टनल्पूरप्रभृतिभिविरचितो वृत्ति' ( द्र०-सस्कृतव्याकरणशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ०४६१-६२, युधिष्ठिर मीमासक ) ।
इस लेख में न्यासकार का स्मरण बडे आदर के साथ किया गया है । इससे प्रतीत होता है कि इन्होने अपने ग्रन्थ मे न्यासकार के मतो का विशेष अनुसरण किया होगा । यहाँ न्यासकार शब्द का प्रयोग पूज्यपाद देवनन्दी के लिए किया गया है जो जैनाचार्य हैं और जिन्होने पाणिनीय व्याकरण पर 'शब्दावतार' नामक त्यास बनाया था अथवा बोधिसत्त्वदेशीय आचार्य जिनेन्द्रबुद्धि के लिए, जिन्होंने अपर नाम काशिकाविवरणपञ्जिका न्यास की रचना की है और समग्र रूप मे जो प्राप्त भी है यह स्पष्ट नही हो पाता । ग्रन्थ के अन्त का लेख इस प्रकार
है
11
“કૃતિ શ્રીમત્પરમસરિદ્રાખાષાવિદ્યાસાગરમુનીન્દ્રવિરવિતાયા ।”
४ क्रियाकलाप
जैनसाहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५ के लेखक प० अम्बालाल प्रेम शाह के अनुसार इसकी रचना जिनदेवसूरि ने की है। ये भावडारगच्छीय आचार्य थे तथा वि० ० स० १४१२ मे पार्श्वनाथचरित्र की रचना करने वाले आचार्य भावदेवसूरि के गुरु थे । इससे यह कहा जा सकता है कि आचार्य जिनदेव ने वि० स० १४१२ के पूर्व या उसके आसपास क्रियाकलाप लिखा होगा | ग्रन्थ सम्प्रति अप्राप्य है ।
I
कातन्त्रव्याकरण पर टीकाएँ
कातन्त्रव्याकरण के जैन तथा जैनेतर होने मे अलग-अलग उल्लेख प्राप्त होते हैं ।" यहाँ जैनेतर मानकर उस पर जैनाचार्यों द्वारा लिखी गई टीकाओ का परिचय दिया जा रहा है । कातन्त्र व्याकरण की अनेक विशेषताओं मे से कुछ इस प्रकार हैं अर्थलाघव तथा लोकव्यवहार का पर्याप्त समादर करना । इस व्याकरण मे यद्यपि वैदिक शब्दो का अन्वाख्यान नहीं किया गया है तथापि ऐसे अनेक शब्दो की साधनप्रक्रिया बताई गई है जो मतान्तर से वेदप्रयुक्त भी माने जाते है । 'मोदक देहि' को संकेत मानकर आचार्य शर्ववर्मा द्वारा लिखे गए इस व्याकरण मे सन्धि (मा | उदकम् ), नाम ( मोदकम् ) तथा आख्यात (देहि) नामक तीन अध्याय एव ११ पाद है (क्रमश ५+६+८= १९) । आचार्य शर्ववर्मा द्वारा इन तीन अध्यायो मे ८५५ सूत्र बनाए गए हैं । चतुर्थ अध्याय ( कृदन्त ) वररुचि द्वारा प्रणीत है जिसमे ५४६ मूत्र हैं । शब्दानुशासन भाग के अतिरिक्त खिलपाठ, शिक्षा, छन्द - प्रक्रिया, कातन्त्र परिशिष्ट आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध है । अनेकत्र पाणिनि की