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संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १०३
कौस्तुभ के मत अनेकल उद्धृत है परन्तु शब्दरत्न का उल्लेख नहीं किया गया है। अन्य प्रमाणो के अभाव मे यह विचार ही मान्य प्रतीत होता है । संस्कृत-विद्वानो को शब्दकौस्तुभ तथा व्याकरण सिद्धान्तसुधानिधि की अपूर्णता पर अवश्य ही ध्यान देना चाहिए तथा प्राप्त अशो का विधिवत् अन्वेषण कर नवीन तय्य प्रकाश मे लाने चाहिए।
२ २२०दावतारन्यास
जनेन्द्र व्याकरण के प्रणेता पूज्यपाद देवनन्दी ने अपने व्याकरण तथा पाणिनीय व्याकरण पर 'न्यास' ग्रन्थ बनाया था। पाणिनीय व्याकरण पर रचित 'न्यास' का नाम 'शब्दावतारन्यास' था, परन्तु यह सम्प्रति अप्राप्य है। इसकी रचना मे प्रमाण प्राप्त हैं। नाथूराम प्रेमी, युधिष्ठिर मीमासक तथा अम्बालाल प्रे० शाह ने शिमोगा जिले की 'नगर' तहसील के एक शिलालेख को उद्धृत कर इसे स्पष्ट किया है। शिलालेख को सबद्ध मेश यह है--
વ્યાસ બંનેન્દ્રસરા સાવુધનુત પાણિનીયસ્થ મૂયો न्यास शब्दावतार भनुजततिहित वधशास्त्र च कृत्वा । यस्तत्वार्थस्य टीका व्यरचयदिह भात्यसौ पूज्यपाद
स्वामी भूपालवन्ध स्परहितवच पूर्णदृरबोधवृत्त ।। इसमे पूज्यपादरचित वैद्यशास्त्र तथा तत्वार्थटीका का भी उल्लेख किया गया है। वृत्त विलास ग्रन्थ मे कनाडी भाषा के काव्यग्रन्थ 'धर्मपरीक्षा की प्रशस्ति को गई है। प्रशस्तिवचन मे पूज्यपाद द्वारा पाणिनीय व्याकरण पर किसी टीकाग्रन्थ के लिखे जाने का उल्लेख है (द्र ० --सस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ४१३) । सम्भवत शिदावतारन्यास' को लक्ष्य कर ऐसा कहा गया हो। आचार्य वर्धमान ने स्वरचित 'गणरत्नमहोदधि' की स्वोपज्ञवृत्ति मे अनेकत दिग्वस्त्र या दिगम्बर नाम से इन्हे अभिहित किया है और गणरत्नमहोदधि के प्रारम्भ मे इनकी स्तुति भी की है दिवस्तभत हरिवामनभोजमुख्या । ३ प्रक्रियामजरी
विद्यासागर मुनि ने काशिकावृत्ति पर यह टीका लिखी थी, इसके हस्तलेख मद्रास तथा त्रिवेन्द्र म मे सगृहीत है । प्रारम्भिक लेख के अनुसार ग्रन्थकार के गुरु का नाम श्वेतगिरि था । लेख इस प्रकार है
"वन्दे मुनीन्द्रान् मुनिवृन्दवन्धान, श्रीमद्गुरुन् श्वेतगिरीन् वरिष्ठान् । न्यासकारवच पलनिकरोद्गीमम्बरे । गृलामि मधुप्रीतो विद्यासागरषट्पद ।।