________________
संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए . एक अध्ययन १०५ अपेक्षा आचार्य शर्ववर्मा ने सरलप्रक्रिया का निर्देश किया है, जिसे मैंने प्रत्येक सूत्र के साथ तुलना करते हुए अपने एक ग्रन्थ मे स्पष्ट किया है। ____ कातन्त्रवाड्मय, सूत्र रचना, धातुपा० आदि पर विशेष जानकारी के लिए मेरा गन्य "कातन्वव्याकरणविमर्श" (प्रकाशित १९७५ ई०) देखना चाहिए। पाणिनीय उत्तरवर्ती लगभग चालीस व्याकरणो मे प्रमुख तथा सर्वप्रथम इस कातन्त्रव्याकरण का अध्ययन-अध्यापन भारत के अनेक प्रदेशो तथा देशान्तरो मे भी होता रहा। देवनागरी, शारदा, पड्ग, उत्कल, तेलुगु लिपियो मे लिखे गए अनेक अन्य आजतक प्रकाशित नही हो सके है, जो अत्यन्त महत्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करते हैं।
प्रक्रियाक्रम के आविष्कारक इस व्याकरण पर अनेक सम्प्रदाओ के आचार्यों ने व्यास्याएं प्रस्तुत की हैं, जिनमे २८ आचार्य जैनसम्प्रदाय के हैं। इन आचार्यो के अधिकांश टीकानन्य अप्रकाशित है। यहाँ १३ टीकाओ पर विशेष अध्ययन प्रस्तुत कर १५ टीकाओ का सक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।
१ कलापदीपिका
दुर्गसिंहकृत कातन्त्रवृत्ति पर गीतम पण्डित ने यह लघु टीका लिखी है, इसका हस्तलेख विक्रमविश्वविद्यालय, उज्जन के सिविया प्राच्यविद्या शोवप्रतिष्ठान मे सुरक्षित है। नामाध्याय के प्रथम पाद की समाप्ति पर उपन्यस्त वचन से ऐसा लगता है कि अन्यकार के पिता का नाम वीर सिंहदेव था "इति वीरसिंहदेवीपाध्यायगीतमपण्डितविरचिताया दुर्गसिंहोक्तकातन्तवृत्तिटीकाया कलापदीपिकाया नाम्नि प्रयम पाद समाप्त ।"
टीकाकार ने यद्यपि अपने लेख की प्रामाणिकता के लिए व्याघ्रभूति, विद्यानन्द, वर्धमान आदि अनेक आचार्यों के अभिमत वचनो को उद्धृत किया है तम्यापि कुछ स्थलो के अध्ययन से पता चलता है कि विद्यानन्द के प्रति ग्रन्थकार की विशेष श्रद्धा थी। जैसे 'अतिजर' शब्द के सवव मे कुछ विद्वानो का मत है कि नपुंसकलिङ्ग मे अम् का पाक्षिक लोप होगा तथा लोपपक्ष मे विसन्ति रूप होगा अतिजर कुल तिष्ठति, अतिजर कुल ५५य । विद्यानन्द ने यह मत उपेक्षणीय माना है अत ग्रन्थकार ने विद्यानन्द का अभिमत उचित सिद्ध किया है तदिहाप्रमाणम् इत्युपेक्षिते इति विद्यानन्द । तस्माद् उभयन 'अतिजरम्' इत्येव भवति (पत्र ४२ अ)। २ कातन्त्रदीपक:
मुनीश्वर सूरि के शिष्य मुनि हर्ष ने इसकी रचना की है। इसका आख्यातान्त , भाग हस्तलेखो मे सुरक्षित है। ग्रन्थ की रचना का प्रयोजन बुद्धिवर्धन बताया