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________________ 80 आनंदवर्धनने तर्वप्रथम ध्वनि के तीन भेदों - वस्तुध्दनि, अलंकार ध्वनि व रसध्वनि को स्वीकार किया है। प्रथम दो भेद संलक्ष्यक्रमव्यंग्य हैं और अंतिम भेद असंल यक्रमव्यंग्य। जैनाचार्य हेमचन्द्र' व आ. नरेन्द्रप्रभतरि2 ने भी सर्वप्रथम ध्वनि के वस्तु, अलंकार व रसध्वनि नगमक उक्त तीन भेदों को स्वीकार दिया है। आ. हेमचन्द्र ने वस्तु: वनि के तेरह भेदों को सोदाहरप प्रस्तुत किया है तथा पह स्टि किया है कि प्रतीयमानार्थ वाच्यार्य ते भिन्न व विविध प्रकार का हो सकता है। उनके अनुसार कहीं वाच्यार्थ विधिरूप होता है व प्रतीयमानार्थ निषेधप। यया - भम धम्मिय दीसत्यो सो सुपो भज्ज मारिओ तेण। गोलापड़ कर कुडंगवातिपा दरियसीहेप ।। कहीं वाच्यार्थ निषेधपरक होता है व प्रतीयमानार्थ विधिरूप। यथा - अत्था एत्य तु मज्जई एत्य अहं दियसयं पुलोएसु। मा पहिय रत्तिध्य तेजार मई न मज्जिहाति।। 1. अयं च वस्त्वलारसा दिभेदात्त्रेधा। काव्यानुशासन, पृ. 47 2. यधप्यनेकधा व्यंग्यं व्यंज का दिदिभेदतः। तथापि वस्त्वलंकार-रसात्मत्वात विधैततत्।। ___ अलंका रमहोदधि, 3/6 3. काव्यानु. पृ. 47 4. वही, प. 53
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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