SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विध्यन्तर रूप । यथा - कही मुख्यार्थ विधिपरक होता है और प्रतीयमानार्थ निषेधान्तर रूप । यथा बहलतमाहयराई अज्ज पउत्थो पई घरं सुन्नं । तह जग्गिज्ज सयज्झय न जहा अम्हे मुसिज्जामो । । ' 1. कहीं वाच्यार्थ निषेध रूप होता है और प्रतीयमानार्थ 3. F विधि की प्रतीति होती है, यथा आताइयं आपाएप जेत्तियं तेत्तियण बंधदिहिं । 2 ओरम वसह इण्डिं रक्खिज्जई गहवईच्छितं । । होती है। यथा - कहीं वाच्यार्थ न विधिरूप है और न निषेध रूप, फिर भी महुए हिं किंव पंथियजई हरति नियंतणं नियंबाओ । साहेमि कस्स रन्ने गामो दूरे अहं एक्का 113 वही, पृ. 53 2. वही. पृ. 54 - कहीं विधि व निषेध के न होने पर भी निषेध की प्रतीति - जीविताशा बलवती धनाशा दुर्बला मम। गच्छ वा तिष्ठवा कान्त स्वावस्था तु निवेदिता ।।4 81 काव्यानुशासन, पृ. 54 वही, प्र. 54
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy