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________________ 79 जैनाचार्यो के अनतार ध्वनि-भेद विवेचन अलंकारशास्त्र के प्रारंभिक काल में ध्वनि - सिद्धान्त को मान्यता प्राप्त नहीं थी। in : उसकी प्रतिष्ठा आचार्य आनंदवर्धन ने की! पुनः ।।वीं शता. ई. में आ. महिमभट्ट ने ध्वनि-सिद्धान्त को अनुमान के अन्तर्गत स्वीकार किया तथा ध्वनि का सयुक्तिक खण्डन किया। किन्तु पररर्ती आचार्य मम्मट व हेमचन्द्र ने महिमभट्ट के सिद्धान्त का खण्डन करते हुए ध्वनि-द्धिान्त की पुनः प्रतिष्ठा की, जिसते ध्वनि तिद्धान्त को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। जैनागर्य हेमचन्द्र ने ध्वनि का लक्षण करते हुए लिखा कि मुख्य आदि (आदि पद से गौष और लक्ष्यार्थ) के अतिरिक्त प्रतीयमान व्यंग्या ध्वनि है।' नि शब्द का प्रारंभ से ही -1) सामान्यत : व्यंग्य अर्थ को सम्झाने के लिये एवं (2) काव्य विशेष को सम्ाने के लिये - इन दो अर्थो में व्यवहार होता रहा है। जैनाचार्यों ने प्रथम अर्थ को ही ध्यान में रखकर विवेचन किया है जबकि आनन्दवर्धन ने द्वितीय अर्थ को ध्यान में रखकर ध्वनि-स्वरूप निरूपप किया है। 1. मुख्यातिरिक्तः प्रतीयभानो व्यंग्यो ध्वनिः। कायानुशासन, 1/19
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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