SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किया गया है उसका तात्पर्य प्रबन्धात्मक काव्य-भेदों से है ।। आ. नरेन्द्रप्रभसूरि ने भी मम्स्ट सम्मत उत्तम, मध्यम तथा अधम ये तीन काव्य-भेद ही किये हैं। 2 साथ ही इन्होंने मध्यम काव्य के, आ. मम्मट द्वारा स्वीकृत आठ उपभेदों का ही उल्लेख किया है। 3 इस प्रकार हम देखते हैं कि आनन्दवर्धन ने काव्य के जिन तीन भेदों का निरूपण किया है, उन्हें परवर्ती आचार्य विश्नाथ तथा पण्डित राज जगन्नाथ को छोड़कर प्रायः अन्य सभी आचार्यों ने समान रूप से मान्यता प्रदान की है। I. 2. वाच्यवाचकयोरन्यद् विचित्रत्वं तिरोदधत् । व्यंजकत्वं स्फुरे यत्रतत् काव्यं ध्वनिरुत्तमम् । । अलंकारमहोदधि 1/15 3. 4. अथ प्रबन्धात्मककाव्यभेदानाह... ...I वही, पृ. 432 5. तयोर्यत्रान्यवैकियाद व्यंजकत्वस्य गौषता । तन्मध्यमं गुणीभूतव्यंग्यं काव्यं निगद्यते । । वही, 1/16 यत्र व्यंजनवैचित्र्यचारिमा कोऽपिनेक्ष्यते । काव्याध्वनि सदाऽध्वन्यैस्तत् काव्यमवरं स्मृतम्।। वही, 1/17 अगूढत्वास्फुटत्वाभ्यामसुन्दरतया तथा । तिद्वयंगत्वेन वाच्यस्य काक्वाक्षिप्ततयाऽपि च । । संदिग्धतुल्यप्राधान्यतयाऽन्यागतथाऽपि च। गुणीभूतमपिव्यंग्यं यत् किंचिच्चारिमात्पदम् || अलंकारमहोदधि 4/1-2 आ. विश्वनाथ ने काव्य के दो छेद माने काव्यं ध्वनिर्गुणीभूतत्यंग्यं वेति द्विधामतम् । साहित्यदर्पण, 4/1 पण्डितराज जगन्नाथ ने काव्य के 4 भेद माने हैंतच्चोत्तमोत्तमोत्तममध्यमाधमभेदाच्चतुर्धा | - CEOगर 78 77.21 -
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy