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दतरी परंपरा में दे आचार्य है, जिन्होंने मार्य, ओज और पसाद - इन तीन गुपों का उल्लेख किया है। इसमें मामह आनंदवर्धन, मम्मट और आचार्य हेमचन्द्र को रखा जा सकता है। आ. मम्ट ने वामनसम्मत शब्द और अर्थगुपों का खण्डन करते हुए लिखा है कि कुछ गुप दोषाभावरूप है, कुछ दोषप हैं और शे का अन्तर्भाव माधुर्य, ओज और प्रसाद में ही हो जाता है। अतः गुपों की संख्या तीन है, दप्त
नहीं।'
तीसरी परम्परा में उन समस्त आचार्यों को रखा जा सकता है जिन्होंने दस अथवा तीन से न्यूनाधिक गुपों का उल्लेख किया है। इसमें अग्निपुराणकार, भोज, आचार्य हेमचन्द्र व जयदेव द्वारा उल्लिखित अज्ञातनामा आचार्य है। अग्निपुराणकार ने गुपों की संख्या 18 मानी है, जो शब्द, अर्थ और उभयगुणों में विभाजित है। भोज ने सामान्यत: गुपों की संख्या 24 मानी है। जिनमें उक्त भरतसम्मत दस गुपों के अतिरिक्त उदात्तता, औ पित्य, प्रेय, सुशध्दता, सौम्य, गांभीर्य, विस्तार, संछिप, संमितत्व, भाविकत्व, गति , रीति उक्ति और प्रोदि - ये 14 गुप हैं।
1. काव्यप्रकाश, 8/72 2. अग्निपुराणका काव्यशास्त्रीय भाग, 10/5-6, 12/18-19
सरस्वतीकण्ठाभरप, 1/60-65