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आ. नरेन्द्रप्रभतरि का गुप - स्वरूप आ. आनंदवर्धन व मम्मट के गप - स्वरूप का मेल है। उन्होंने गुण के लिए आवश्यक और पूर्वाचार्यों द्वारा स्वीकृत सभी उत्कृष्ट तत्वों को नहप कर गुप - स्वरूप निरूपप किया है। वे लिखते हैं कि - जिस प्रकार शौर्यादि गुण आत्मा के आश्रित रहते हैं, उसी प्रकार जो रस के आश्रित रहते हैं, अकृत्रिम हैं, नित्य हैं तथा काव्य में वैकिय के उत्पादक हैं, वे गुण कहलाते हैं।' इसी को और स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि - जिस प्रकार प्रापी के शौर्य - स्थैर्य आदि गुण आत्मा के ही आश्रित रहते हैं, आकार में नहीं, उसी प्रकार माधुर्यादि गुप भी रस के ही आश्रित रहते हैं। ये गुप रस के ही धर्म हैं, वर्ष समूह के नहीं। यही अलंकारों से गुप का भेद है। क्योंकि गुपों के अभाव में अलंकारो से युक्त रचना मी काव्य न हो सकेगी। जैसा कहा भी गया है कि यदि यौवनशन्य स्त्री के शरीर की तरह गुपों से शून्य काव्यवापी हो, तो निश्चय ही लोकप्रिय अलंकार भी धारप करने पर अच्छी नहीं लगती है।'
1. शौर्यादय इवात्मानं रसमेव श्रयन्ति ये। गुपास्ते सजा काव्ये नित्यवैफियकारिपः।।
अलंकारमहोदधि, 6/1 2. वही, 6/I वृत्ति 3 वही, पृ. 187