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तत्त्व है। इन दोनों का आश्रय भी भिन्न भिन्न है। अत : भट्टोदभट का अभेदवादी मत अनुचित है।
आगे वे वामन के भेदवादी मत को भी उधृत करते हुए व्यभिचारयुक्त बताते हैं तथा तर्क व उदाहरण प्रस्तुत कर स्वमत की पुष्टि करते हैं। यह भी पूर्वोल्लिखित है कि वामन ने गुप व अलंकार में भेद माना है। पर हेमचन्द्र इसका एंडन सोदाहरप निरूपप करते हुए लिखते हैं कि "गतोऽस्तमर्को भातीन्दुर्यान्ति वासाय पक्षिपः' इत्यादि में प्रसाद, पलेष, समता, माधुर्य, सौकुमार्य, अर्थव्यक्ति आदि गुपों का सदभाव होने पर भी उसकी काव्य, व्यवहार में प्रवृत्ति नहीं हो रही है। तथा -
"अपि काविता वार्ता तत्यौन्निप्राविधायिनः। इतीव प्रष्टुमायाते तस्याः कान्तमीक्षपे।।।
इस पध मे उत्प्रेक्षा अलंकार मात्र होने पर - तीन चार गुपों के अविवक्षित होने पर भी काव्य व्यवहार होता ही है। अत: वामन के मत में भी व्यभिचार आ जाता है। अत: अलंकार अंगाश्रित व गुप रसाश्रित होते हैं यह हमारा मत ही प्रेयस्कर है।'
I. ..... वामनेन यो विवेकः कृतः सोऽपि व्यभिचारी।.... तस्माधचोक्त एव गुपालंकार विवेकः श्रेयानिति।
वही, टीका, पृ. 36