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________________ 283 प्रस्तुत करते हुए गुपालंकार विवेक । का प्रतिपादन किया है। इसमें भट्टोद्भट के अभेदवादी मत व वामन के भेदवादी मत का खण्डन और स्वमत का प्रतिपादन किया है। जिसमें मम्मट का प्रभाव परिलक्षित होता है। जैसा कि पूर्वकथित है कि भट्टोद्भट ने गुण व अलंकार में कोई भेद नहीं माना है। उनके इस मत को हेमचन्द्राचार्य ने निरस्त कर दिया है। 2 उनका कथन है कि काव्य के सन्दर्भ में अलंकारो को ही रक्खा व हटाया जाता है, गुणों को नहीं तथा अलंकारो को त्याग करने से न तो वाक्य दूषित होता है न ही उनके ग्रहण ते पुष्ट ।' इसे उन्होंने उदाहरण द्वारा पुष्ट किया है तथा यह भी कहा है कि गुणों का तो त्याग व ग्रहण करना सम्भव ही नहीं है। " इस प्रकार गुण व अलंकार दोनों अलग-अलग 1. अंगाश्रिता इति । ये त्वंगिनि रते भवन्ति ते गुणाः । एष एव गुपालंकारविवेक: । काव्यानुशासन, विवेक टीका, पृ. 34 2. एतावता शौर्यादिसदृशा गुणाः केयूरादितुल्या अलंकारा इति विवेकमुक्त्वा संयोगसमवायाभ्यां शौर्यदीनामस्ति भेदः । इह तूभयेषां समवायेन स्थितिरित्यभिधाय तस्माद गडरिकाप्रवाहेण गुपालंकार भेद इति भामहविवरणे यद भट्टोमटोऽभ्यधात्, तन्निरस्तम्। वही, टीका, पृ. 34-35 3. तथा हि-कवितारः संदर्भेष्वलंकारान् व्यवस्यन्ति न्यस्यन्ति च, न गुणान्। नचालंकृतीनाम्पोद्वाराहाराभ्यां वाक्यं दुष्यति पुष्यति वा। वही, टीका, पृ. 35 गुणानाम्पोद्वाराहारौ तु न संभवत इति, वही, पृ. 36 4.
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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