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________________ 888 प्रकृतिव्यत्यय - (पात्रों का विपर्यय ) हेमचन्द्राचार्य के अनुसार प्रकृति सात प्रकार की होती है (1 ) दिव्या, ( 2 ) मानुषी, (3) - दिव्यमानुषी, (4) पातालीया, ( 5 ) मर्त्यपातालीया, (6) दिव्य पातालीया, ( 7 ) दिव्यमर्त्यपाता लिया । । वीर, रौड, श्रृंगार और शान्तरस प्रधान काव्यों में क्रमश: धीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरललित व धीरप्रशान्त नायक होते हैं, ये चारों उत्तम, मध्यम और अधम के भेद से तीन तीन के होते हैं। प्रकार आचार्य हेमचन्द्र की मान्यतानुसार रति, हास्य, शोक और अद्भुत को मानुषोत्तम प्रकृति की तरह दिव्यादि प्रकृतियों में भी निबद्ध करना चाहिए, किन्तु संभोग श्रृंगाररूप उत्तम देवता विषयक रति का वर्णन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनका वर्णन माता पिता के संभोग वर्पन की तरह अत्यन्त अनुचित है। कुमारसंभव में जो शंकर -पार्वती के संभोग का वर्णन किया गया है, वह कवित्व से युक्त प्रतिभासित नहीं होता है। क्रोध का भी भृकुटि आदि विकार शक्ति के तिरस्कार से अधिक दोषों 2 वही, पृ. 173-174 268 - - रहित शीघ्र फलदायक रूप में निबद्ध करना चाहिए। स्वर्ग - पाताल गमन, समुद्र लंघन आदि के उत्साह का वर्णन मनुष्यों से भिन्न दिव्यादि प्रकृतियों में करना चाहिए । मनुष्यों में जितना पूर्व चरित्र प्रसिद्ध है या उचित है उतना ही वर्णन करना चाहिए। इससे अधिक असंभव वर्पन करने पर
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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