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________________ 848 अनवसर में रस का विच्छेद उदाहरणार्थ "वीरचरित" नाटक के द्वितीय अंक में राम तथा परशुराम के युद्धोत्ताह में अविच्छिन्न रूप से प्रवृत्त होने पर राम की यह उक्ति - "कङ्कषमोचनाय गच्छामि' अनवसर में ही रसास्वादन में विच्छेद कराने वाली है, क्योंकि इससे रामगत वीररस की प्रतीति में बाधा पड़ती है । । 850 अङ्ग- ( अप्रधान ) रस का अतिविस्तार से वर्णन " हयग्रीव दोष है। 2 - - अनंग का वर्णन - - यथा वध में हयग्रीव (प्रतिनायक) का विस्तार से वर्णन 1. वही, पृ, 171 2 वही, पृ. 171 3. वही, पृ. 172-173 वही, पृ, 172 - 868 अंगी (प्रधान) की विस्मृति यथा - "रत्नावली" के चतुर्थ अंक में बाभ्रव्य के आगमन से नायक वत्सराज द्वारा सागारिका ( अंगी) की विस्मृति दोष है, क्योंकि स्मृति सहृदयता का सर्वस्व है। यथा "तापसवत्सराज " मे छ: अंकों में भी वासवदत्ता विषयक प्रेम सम्बन्ध कथावशात् विच्छेद की आशंका होने पर भी निबद्ध किया गया है। 3 267 878 अनङ्ग अर्थात प्रकृत रस के अनुपकारक का वर्णन होने पर भी दोष होता है। यथा - "कर्पूरमंजरी" मैं राजा द्वारा नायिका और अपने द्वारा किए बसन्त वर्षन की उपेक्षा कर बन्दियों द्वारा वर्णित बसन्त की प्रशंसा करना । " 4 -
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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