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अनवसर में रस का विच्छेद
उदाहरणार्थ
"वीरचरित" नाटक
के द्वितीय अंक में राम तथा परशुराम के युद्धोत्ताह में अविच्छिन्न रूप से प्रवृत्त होने पर राम की यह उक्ति - "कङ्कषमोचनाय गच्छामि' अनवसर में ही रसास्वादन में विच्छेद कराने वाली है, क्योंकि इससे रामगत वीररस
की प्रतीति में बाधा पड़ती है । ।
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अङ्ग- ( अप्रधान ) रस का अतिविस्तार से वर्णन
" हयग्रीव
दोष है। 2
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अनंग का वर्णन
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यथा
वध में हयग्रीव (प्रतिनायक) का विस्तार से वर्णन
1. वही, पृ, 171
2 वही, पृ. 171 3. वही, पृ. 172-173 वही, पृ, 172
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868 अंगी (प्रधान) की विस्मृति
यथा - "रत्नावली" के चतुर्थ
अंक में बाभ्रव्य के आगमन से नायक वत्सराज द्वारा सागारिका ( अंगी) की विस्मृति दोष है, क्योंकि स्मृति सहृदयता का सर्वस्व है। यथा
"तापसवत्सराज " मे छ: अंकों में भी वासवदत्ता विषयक प्रेम सम्बन्ध कथावशात् विच्छेद की आशंका होने पर भी निबद्ध किया गया है। 3
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अनङ्ग अर्थात प्रकृत रस के अनुपकारक का वर्णन होने पर भी दोष होता है। यथा - "कर्पूरमंजरी" मैं राजा द्वारा नायिका और अपने द्वारा किए बसन्त वर्षन की उपेक्षा कर बन्दियों द्वारा वर्णित बसन्त की प्रशंसा करना । "
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