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________________ 266 यहाँ पर वर्णित रति परिहार आदि अनुभावों के करूण इत्यादि * भी संभव होने से कामिनी रूप आलम्बन विभाव की प्रती ति बड़ी कठिनता से होती है, अत: दोष है। इसी प्रकार अनुभाव की कष्टकल्पना का उदाहरप - कर्परधलिधवलयुतिपूरधतदिङमण्डले शिशिरसोचिषि तत्य यूनः। लीला शिरोंऽशुकनिवेशविशेषक्लप्तिव्यक्त स्तनोन्नतिरभन्नयनावनौ सा।।' यहाँ उद्दीपन (चन्द्रमा) और आलम्बन रूप (नायिका) श्रृंगार योग्य विभाव, अनुभाव में पर्यवसित रूप में स्थित न होने से अनुभाव की कष्टपूर्वक अभिव्यक्ति हो रही है। 28 रत की पुनः पुनः दीपित - अंगभूत रस का परिपोष हो जाने पर भी बार - बार उसे उद्दीप्त करना दोष है, यथा - कुमारसंभव के रतिविलाप में 12 83 अनवसर में रस का विस्तार - उदाहरणार्थ - "वेणीसंहार" के द्वितीय अंक में भीष्मादि अनेक वीरों के युद्ध में विनाश के अवसर पर दुर्योधन का श्रृंगार वर्षन अनवसर में रस का विस्तार है।' • वही. पृ. 170 2. वही, पृ. 170 - वही, पृ. 170
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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