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________________ 265 रेमा वर्णन करने पर नैरन्तर्य विरोध होता है। किन्तु शान्त तथा श्रृंगार के मध्य अन्य रस का वर्णन करने से विरोध समाप्त हो जाता है।' इसी प्रकार जब दो विरोधी रस अङ्गी रूप में अभिहित हो तो दोष होता है, किन्तु जब एक रस किसी दूसरे प्रधान रस का अंग हो जाता है तो दोष समाप्त हो जाता है।2 ___ तदनन्तर निम्नलिखित 8 रसदोषों का आ. हेमचन्द्र ने विवेचन किया है - (I) विभाव और अनुभाव की कष्टकल्पना से अभिव्यक्ति, (2) एक ही रस की पुनः पुनः दीप्ति, (3) अनवसर में रस का विस्तार, (4) अनवसर में रस का विच्छेद, (5) अंग का अतिविस्तार से वर्पन, (6) अंगी (रस) की विस्मृति, (7) अनंग का वर्णन और (8) प्रकृति व्यत्यय। इनका विवेचन इस प्रकार है - है। विभावानुभाव की कष्टकल्पना द्वारा अभिव्यक्ति - इनमें विभाव, यथा परिहरति रति मतिं लुनीते स्खलतितरां परिवर्तते च भय ः। इति बत विषमा दशात्य देहं परिभवति प्रसमं किमत्र कुर्मः।। 1. वही, पृ. 162 2. वही, पृ. 164 ॐ वही, 3/3 + वही, पृ. 169
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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