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________________ 269 असत्यता की प्रतीति होती है और "नायक की भांति आचरप करना चाहिए, प्रतिनायक की भाँति नहीं इस उपदेश में पर्यवसित नहीं होता है। इस प्रकार कही गई पकृतियों का अन्यथारूपेप वपन प्रकृतिव्यत्यय है।' आगे वे लिखते हैं कि "तत्रभवन", "भगवन्" इन सम्बोधनों का उत्तम नायक के द्वारा प्रयोग किया जाना चाहिए, अधम के द्वारा नहीं, वह भी मुनि आदि में, राजा आदि में नहीं। "भट्टारक" सम्बोधन का प्रयोग (उत्तम के द्वारा) राजा आदि मे नहीं करना चाहिए। परमेश्वर सम्बोधन का प्रयोग मुनि प्रभृति में नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने पर प्रकृति व्यत्यय दोष होता है। इसके समर्थन में उन्होंने रूइट की दो कारिकायें भी उद्धत की हैं। इसी प्रकार देश, काल और जाति आदि के वेष - व्यवहारादि का समुचित रूप से औचित्य के आधार पर निबन्धन करना चाहिए।' इसका सोदाहरप विवेचन विवेक टीका में उन्होंने प्रस्तुत किया है। यह विवेचन काव्यामीमांसा से बहुत कुछ मिलता है। आचार्य मम्मट तथा हेमचन्द्र के रसदोष विवेचन में पर्याप्त साम्य है। दोनों ही आचार्यों ने रसदोषों के नाम प्रायः एक से ही दिये हैं। मात्र उनके वर्पन क्रम में अन्तर है। 1. वही, पृ, 176 - 178 2. वही, पृ. 178 ॐ वही, वृत्ति , पृ. 178 . + वही, टीका, पृ. 179 - 198 .
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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