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दोष माना है - भावदेवसूरि ने अर्थदोष माना है।
इस प्रकार अर्थदोषों के प्रसंग में विचार करने से यही प्रतीत होता
है कि प्राय: सभी जैनाचार्यों ने आचार्य मम्मट को ही आधार मानकर दोष निरूपण किया है।
रस दोष
रसवादी आचार्यों ने रस को काव्य की आत्मा, जीवनाधायक
तत्त्व माना है। एवंभूत रस के दूषित हो जाने से काव्यत्व की हानि निश्चित है। अतः रसदोषों के परिहार हेतु उनका ज्ञान होना अत्यावश्यक है।
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आचार्य मम्मट ने दस प्रकार के रसदोषों का उल्लेख किया है (1) स्वशब्दवाच्यता अर्थात् व्यभिचारिभावों, रतों और स्थायिभावों का स्वशब्द ते कथन करना, ( 2 ) अनुभाव तथा विभाव की कल्पना से अभिव्यक्ति, ( 3 ) रस के प्रतिकूल विभावादि का ग्रहण, ( 4 ) एक ही रस की पुनः पुनः दीप्ति, (5) अनवसर में रत का विस्तार, ( 6 ) अनवसर में रस का विच्छेद, ( 7 ) अङ्ग रस का अतिविस्तार, ( 8 ) अंगी रस का भूल जाना, ( १ ) प्रकृतियों का विपर्यय और, ( 10 ) अनङ्ग, (अनुपयोगी ) रस का
कथन | 2
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प्रथम
मैं तीन और द्वितीय में दो भेदों को दोष होते हैं। इन्हें अलग-अलग मानने भेद हो सकते हैं। आचार्य विश्वेश्वर ने 13 भेदों को गिनाया है।
काव्यप्रकाश, 7/60-62
मिलाकर गिनने से दस
पर दस के स्थान पर तैरह काव्यप्रकाश के पृ. 357 पर