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जैनाचार्य हेमचन्द्र रस- दोषों के विवेचन प्रसंग में सर्वप्रथम लिखते हैं
कि रसादि का स्वशब्द से कथन करना, कहीँ कहीं संचारिभाव को छोड़कर सदोष कहलाता है। ' उन्होंने वृत्ति में आदि पद से रस के अतिरिक्त स्थायिभाव व व्यभिचारिभाव को भी परिगणित किया है तथा सभी के उदाहरण दिये हैं। रस के साथ श्रृंगारादि के स्वशब्द से कथन का उदाहरण " श्रृंगारी गिरिजानने सकरूपो...... 12 इत्यादि तथा स्थायि और व्यभिचारिभावों के स्वशब्द से कथन के उदाहरण पृथक् पृथक् दिये हैं। यथा - " संप्रहारेप्रहरणैः. 13 इत्यादि एवं "सव्रीडा दयितानने.. ..14.
इत्यादि | उनके अनुसार कहीं
कहीं संचारी भाव के शब्दतः कथित होने पर
भी दोष नहीं होता है इसका उदाहरण उन्होंने "औत्सुक्येन कृतत्वरा
सहभुवा..
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प्रस्तुत किया है।
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3. वही, पृ. 160
4. वही, पृ, 160
इसके पश्चात् विभावादि की प्रतिकूलता नामक रतदोष का विवेचन अलग से करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि रस के बाधित होने पर आश्रय के एक्य होने पर, निरन्तरता होने पर और अनङ्गता होने पर
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विभावादि की प्रतिकूलता नामक रसदोष होता है। यथा
"प्रसादे वर्तस्व
1. रसादे: स्वशब्दो क्तिः: कवचित सञ्चारिवर्ज दोषः काव्यानुशासन, पृ. 159,371
2 वही, पृ, 159
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5. वही, पृ. 160
6. अबाध्यत्वे आश्रयैक्ये नैरन्तर्येऽनङ्गत्वे च विभावादिपातिकूल्यम् वही, 3/2