SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 247 अर्थदोष - विभिन्न कारपों के द्वारा अर्थ के दूषित होने को अर्थदोष कहते हैं। मम्म्टाचार्य ने 23 अर्थदोषों का उल्लेख किया है -(1) अपुष्ट, ( 2 ) कष्ट, (3) व्याहत, (4) पुनरूक्त, (5) दुष्कम, (6) ग्राम्य, ( 7) संदिग्ध, (8) निर्हेत, (१) प्रसिद्धिविरुद्ध, (10) विद्या विरुद्ध, (11) अनवीकृत, (12) सनियम - परिवृत्त, (13) अनियम - परिवृत्त, (14) विशेष - परिवृत्त, (15) अविशेष - परिवृत्त, (16) आकांक्षा, (17) अपयुक्त, (18) सहचर-भिन्न, (19) प्रकाशितविरूद, (20) विध्ययुक्त, (21) अनुवादायुक्त, (22) त्यक्तपुनः स्वीकृत और (23) अवलीला' आचार्य वाग्भट प्रथम ने अर्थदोषों के सम्बन्ध में मात्र इतना लिखा है कि - बिना किसी कारप के देश, काल, आगम, अवस्था और दव्यादि के विरुद्ध अर्थ का गुम्पन नहीं करना चाहिए। यथा - चैत्र मास के प्रारंभ में विकसित कुटज पुष्पों की पंक्ति ते मुस्कराती हुई दिशाओं में हिम - कप के सृदश उष्प सूर्य के अति प्रचण्ड हो जाने पर मरुस्थल के सरोवर में जलक्रीडा के लिये आए हुए मद के कारप अन्ध हाथियों के बच्चों को विषम- बापों के प्रहार से योगीजन बेध रहे हैं। यहाँ बसन्त ऋतु में कुटज पुष्पों का पुष्पित होना, कालविरुद्ध, सूर्य में हिमकप के समान शीतलता. द्रव्यविरुद्ध, मस्थल के सरोवर में जलक्रीड़ा देशविरुद, हाथियों के बच्चों का मद के • काव्यपकाश, 7/55 - 57 2. वाग्भटालंकार, 2/27 3 वाग्भटालेंकार, 2/28
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy