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पकार का विभाजन नहीं किया है अपितु उपर्युक्त 8 दोषों को स्वतंत्ररूप ते प्रतिपादित किया है जो पद तथा वाक्य दोनो में समानरूप से पाये
जाते हैं।
नरेन्द्रप्रभसरि ने 15 वाक्यदोषों का उल्लेख किया है। (1) ग्राम्य, (2) संदिग्ध, (3) दुःप्रव, (4) अप्रतीत, (5) अयोग्यार्थ (अनुचितार्थ), (6) अप्रयुक्त, (7) अवाचक, (8) जुगुप्ताजनक अश्लील, (१) अमंगलजनक अश्लील, (10) वीडाजनक अश्लील, (11) नेयार्थ, 12) निहतार्थ, (13) विरुद्धमतिकृत, (14) अविमृष्टविधेयांश और (15) संक्लिष्ट।'
___ इनमें से 8 दोषों का विवेचन हेमचन्द्राचार्य के उभय-दोष वर्णन के प्रसंग में किया जा चुका है। जुगुप्ता, अमंगल और दीडाजनक - इन तीनों को हेमचन्द्र ने एक अश्लील दोष के अन्तर्गत माना है। इसी प्रकार अपयुक्त में गाम्य, अप्रतीत, अप्रयुक्त और निहतार्थ तथा असमर्थ में संदिग्ध, अवाचक और नेयार्थ का अन्तर्भाव किया है।
नरेन्द्रप्रभतरिकृत उभयदोषों के लक्षणों व उदाहरों में कोई नवीनता
नहीं है।
आ. वाग्भट-द्वितीय ने निरर्थक आदि 16 शब्ददोष माने हैं।2 उनके अनुसार ये सभी शब्द-दोष पद और वाक्य में समान रूप से पाये जाते है तथा इनका उल्लेख पहले पद-दोष प्रसंग में किया जा चुका है।
1. अलंकारमहोदधि, 5/6 - 8
काव्यानुशासन, वाग्भट -पु. 12