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यहाँ "अकार्यों में मित्र" "बुरे कामों में मित्र" तथा"अपूर्व कीर्ति" में अपर्वक की ति अर्थात अकीर्ति रूप विरुद्ध अर्थ की प्रतीति होने से दोष है । इसके कहीं - कहीं गुम होने का उदाहरप "अभिधाय तदातदपियं" इत्यादि
दिया है।
इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने अनेक उदाहरणों द्वारा विषय को और अधिक स्पष्ट करने का प्रयास किया तथा एक - एक दोष से संबंधित सभी बातें एक साथ ही कह दी हैं।
आचार्य मम्मट के निहतार्थ, अवाचक, संदिग्ध, अप्रतीत, गाम्य और नेयार्य को आचार्य हेमचन्द्र ने अलग से स्वीकार नहीं किया है, अपितु इनका समावेश स्वीकृत दोषों में ही कर लिया है। असमर्थ नामक उभयदोष में अवाचक, कल्पित तथा संदिग्ध को समाहित कर लिया है। उन्होंने जिन दोषों को जिसके अन्तर्गत स्वीकार किया है उसमें तत् - तत दोषों के उदाहरप दिये हैं। साथ ही दोषों के अन्तर्भाव का यत्र - तत्र स्वोयज्ञ विवेक टीका में उल्लेख दिया है।
आचार्य मम्मट ने तेरह दोष पदगत और उनमें क्लिष्ट, अविमृष्टविधेयांश तथा विरुद्धमतिकृत इन तीन को मिलाकर 16 दोष समासगत माने है। इसी प्रकार इन 16 में से च्युतसंस्कार, असमर्थ और निरर्थक इन तीन दोषों को छोड़कर शेष 13 वाक्यगत दोष माने हैं तथा इन्हीं में से 6 को पदांशगत दोष के उदाहरप के रूप में भी प्रतिपादित किया है। परन्तु हेमचन्द्राचार्य ने इस