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________________ दोष है। यहाँ "चण्डि" और "दाग" आदि पदों में श्रुतिकटुता होने आचार्य हेमचन्द्र ने इसके वक्ता आदि के औचित्य ते गुप होने के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। जैसे - वैयाकरण के वक्ता और प्रतिपाद्य होने से क्रमश: दीधी. वी. समः" इत्यादि तथा " यथा त्वामहमद्राक्षै इत्यादि । सिंह में वाच्य होने से परूष शब्दों के गुण होने का उदाहरण, "मार्तंङ्गाः किमु वल्गितैः "इत्यादि दिया है। वीभत्स में व्यङ्ग्ग्य होने पर गुप होने का उदाहरण तथा क्रोधी व्यक्ति के तिर धुनने आदि की स्थिति में इसके गुप होने का उदाहरण भी दिया गया है। कहीँ कहीँ पर यह दोष न गुण होता है और न दोषं । जैसे शीर्णघ्राणाद्रिपाणीन्" इत्यादि । क्लिष्टत्व व्यवधानपूर्वक अर्थ का बोध कराने वाला क्लिष्टत्व दोष है। पदगत, यथा दक्षात्मजादयितवल्लभवेदिकानां । ज्योत्स्नाजुषा जललवास्तरलं पतन्ति ।। 242 1 1. वही, पृ, 241 - इसमें दक्ष की आत्मजा तारा, उसका दयित ( प्रिय) चन्द्रमा, उसकी वल्लभायें चन्द्रकान्तमपियां, उसकी वेदिकाओं की चाँदनी के साथ
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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