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________________ 243 संयोग से चंचल जलकण गिर रहे हैं। यहाँ अर्थ की प्रतीति व्यवधानपूर्वक होने से दोष है। झटित्यर्थ की प्रतीति में गुप होता है। जैते - काचीगुप - स्थानमनिन्दितायाः क्लिष्टदोष का वाक्यगत उदाहरण - धम्मिलत्य न कत्य प्रेक्ष्य निकामं कुरंगशावाक्ष्याः। रज्यत्यपूर्वबन्धव्युत्पत्तेमानस शोभाम् ।।' यहाँ केशपाश की शोभा देखकर किसका मन रजित नहीं होता है। इस प्रकार दरस्थित सम्बन्ध में क्लिष्टता दोष है। अविमृष्टविधेयांश - जहाँ प्रधानरूप से विधेयांश का कथन न किया गया हो वहाँ ये दोष होता है। पदगत, यथा - वपुर्विरूपाक्षमलक्ष्यजन्मता दिगम्बरत्वेन निवेदितं वतु। वरेषु यद बालमृगाधि मृग्यते तदस्ति किं व्यस्तमपि त्रिलोचने।।2 यहाँ अलक्ष्यता अनुवाप नहीं है, अपितु विषय है, अतः "अलक्षिता जनिः' यह कहना चाहिए था । 1. वही, पृ, 242 2. वही, पृ. 242 ,
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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