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________________ 241 यहाँ पर पशु पद कातरता की अभिव्यक्ति कर रहा है जो कि अनचित है। (यहाँ पर वीरों की शूरता का वर्णन होना चाहिए) अतएव अनुचितार्थ नामक दोष है। वाक्यगत, यथा - कुविन्दस्त्वं तावत्पय्यति गुपगाममभितो। यशो गायन्त्येते दिशि दिशि वनस्थास्तव विभो।। शारज्ज्योत्स्नागौरस्फुटविकट सर्वांग सुमगा। तथापि त्वत्कीर्तिमति विगतासादनामिह।।' यहाँ कुविन्दादि शब्द जुलाहापरक अर्थ के भी वाचक होने से स्तूयमान राजा के तिरस्कार को व्यंजित करते हैं, अत: दोष है। श्रुतिकटुत्व - परूषवर्ष को श्रुतिकटु दोष कहते हैं। पदगत, यथा - अनंगमंगलगृहापांग मातरंगितः। आलिङ्गितः स तन्वइ.ग्या कातायं लभते कदा।। यहाँ "कातार्य पद श्रुतिकटु होने से दोष है। वाक्यगत, यथा - अचरच्चण्डि कपोलयोस्ते कान्तिडवं डाग्विशद शशांकः।। - - 1. वही, पृ. 29 2. वही, पृ. 240 है वही, पृ. 240
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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