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________________ 240 यहाँ पर "वन्यां" पद दन्दी के सप्तमी विभक्ति एकवचन में पयक्त होकर बन्दी बनायी गयी महिला का बोधक है अथवा आशी: परम्परां, का विशेषप एवं द्वितीया विभक्ति एक - वचन में प्रयुक्त होकर पज्या का बोधक है, इसमें संदेह है। वाक्यगत, यथा - सुरालयोल्लासपरः प्राप्तपर्याप्तकम्पनः । मार्गपप्रवपो भास्वद मतिरेष विलोक्यते ।।' यहाँ पर सुर, कम्पना, मार्गप एवं मास्वमति क्रममाः देव, सोना, बाप और विभूति अर्थ के वाचक हैं अथवा क्रमशः मदिरा, कम्पन, मिक्षा एवं रात आदि अर्थ के वाचक हैं, इसमें संदेह है, अतएव असमर्थता दो है। आचार्य हेमचन्द्र ने मम्मट सम्मत अवाचकता, प्रसिद्धितता, नेयार्यता व संदिग्धता नामक दोषों का अन्तर्भाव असमर्थत्व दोष में कर लिया है। अनुचितार्थता दोष - पदगत यथा, तपस्विभिर्या सुचिरेप लभ्यते प्रयत्नतः सत्रिमिरिष्यते च या। प्रयान्ति तामाशु गतिं यशस्विनो रपाश्वमेधे पशुपागताः।।' वही, पृ. 237 काव्यान, विवेक टीका, पृ. 229 वही, पृ. 238
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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