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________________ 234 अभी तक उक्त इन वाक्य - दोषीं के विवेचन से ये स्पष्ट होता है कि इन जैनाचार्यों ने मम्मट का अनुसरप करते हुए भी अपनी मान्यतानुसार न्यनाधिक विवेचन किया है। आ. वाग्भट प्रथम ने 8, हेमचन्द्र ने 13, नरेन्द्रप्रभसरि ने 23, वाग्भट - द्वितीय ने 14 व मावदेवतरि ने 32 वाक्य - दोषों का उल्लेख किया है। आ. हेमचन्द्र को प्रायः मम्म्ट का अनुयायी कहा जाता है पर उन्होंने केवल तेरह वाक्य-दोषों का उल्लेख कर निश्चय ही मम्मट से भिन्न अपनी मान्यता स्थापित की है। उभयदोषः - पद तथा वाक्य दोनों में एक साथ पाये जाने वाले दोषों को उभय - दोष कहा गया है। आ. मम्मट ने यद्यपि “उभय-दोष नाम का प्रयोग नहीं किया है तथापि पद तथा वाक्य में समानरूप से रहने वाले दोषों का विवेचन किया है। मम्मटानुसार इस प्रकार के तेरह दोष हैं(।) अतिक्टु, (2) अप्रयुक्त, (3) निहतार्थ, (4) अनुचितार्थ, (5) अवाचक (6) अपलील, (7) संदिग्ध, (8) अपतीत, (9) ग्राम्य, (10) नेयार्य, (II) अविमृष्टविधेयांश और (13) विरुद्धमतिकृत - ये तेरह दोष पदों के अतिरिक्त वाक्यगत भी होते हैं। मम्मट ने इन सबके पदगत उदाहरप देने के बाद वाक्य गत उदाहरप भी दिये हैं। इनमें से लगभग छः दोषं पदांशगत भी हैं।' • काव्यप्रकाश, 7/52 । पदगत उदाहरप-काव्यप्रकाश पृ. 267-280, वाक्यगत उदाहरण पु. 281 -294 व पदांझंगत उदाहरणं - पू. 295-300 ।
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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