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________________ 235 हेमचन्द्राचार्य ने उभय - दोषों का स्वतन्त्ररूप से विवेचन किया है। उनके अनुसार उभयदोष 8 प्रकार के हैं -(1) अप्रयुक्त, (2 ) अश्लील, ( 3 ) असमर्थ, (4) अनुचितार्य (5) श्रुतिकटु. (6) क्लिष्ट, (7) अविमृष्टविधेयांश और (B) विरुदबुद्धिकृत।' उनपयुक्तत्त्व - कवियों द्वारा अनादत अपयुक्त दोष है। यह लोकमात्र - प्रसिद्ध और शास्त्रमात्रप्रसिद्ध भेद से दो प्रकार का होता है। लोकमात्रप्रसिद्धपद दोषं जैसे - "कष्टं कर्य रोदिति थत्कृतेयम्।। यहाँ "यूत्कृता" यह पद लोकमात्र में प्रसिद्ध होने से पद - दोष है। वाक्यदोष, यथा - ताम्बलभृतगल्लोऽयं भल्लं जन्पति मानुषः। करोति खादनं पानं सदैव तु यथा तथा ।।' यहाँ गल्ल, भल्ल आदि अनेक शब्द लोकमात्र में प्रसिद्ध होने से वाक्य - दोष हैं। इसे मम्मट ने वाक्यगत ग्राम्यत्व दोष का उदाहरप माना आचार्य हेमचन्द्र ने लोकमात्र प्रसिद्ध अप्रयुक्तदोष के पदगत और वाक्यगत दोनों के कहीं - कहीं गुप हो जाने के उदाहरप भी क्रमशः 1. काव्यानुशासन, 3/6 2. वही, पृ. 226 3 वही, पृ. 227 + काव्यप्रकाश, पृ. 285
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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