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यहाँ कुड ( चन्द्रमा) की उक्ति में समास नहीं किया है और कवि की उक्ति में किया है, अत: दोष है।
अपोक्तवाच्य - अवश्य कथनीय को न कहना ।
यथा -
अप्राकृतस्य चरिता तिशयैश्च दृष्टै रत्यत् तैर्मम हतत्य तथाऽ प्यनाथा। कोऽप्येष वीरशिशुकाकृतिरप्रमेयमाहात्म्यसारसमुदायमयः पदार्थ।।'
यहाँ "मम हृतस्य" के स्थान पर "अपमृतोऽस्मि इस रूप में विधि का कथन करना चाहिए था, क्योंकि तथाऽपि' इस पद का द्वितीय वाक्य में ही प्रयोग किया जाना संभव है। अतः प्रथम वाक्य को द्वितीय से पृथक करने के लिए उक्त प्रकार से अवश्य कथनीय को न कहने से दोष है।
त्यक्त्तपसिद्धि - प्रसिद्धि का अतिक्रमप करना ।
यथा -
रपन्ति पक्षिपः वेडं चक्रीवन्तो वितन्वते। इदं बंहितमश्वानां ककुदमानेष हेषते ।।
यहाँ मंजीर आदि में रपित, पक्षियों में कृषित, सूरत में स्वनित - मपित आदि तथा मेघों में गर्षित आदि की प्रतिदि का अतिक्रमप होने से दोष है।
1. वही, पृ. 140 2. वही, पृ. 140