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________________ अर्द्धान्तरस्थैकपदता - जहाँ पूर्वार्द्ध से सम्बद्ध एक पद उत्तरार्द्ध में स्थित हो। यथा - अनिष्टान्यार्थ यथा - यथा मावदर्थपदां वाचमेवमादाय माधवः । विरराम महीयांसः प्रकृत्या मितभाषिणः ।। ' यहाँ ' विरराम' इस पद को पूर्वार्द्ध में रखना उचित था । 1. 2. 3. - होने से दोष है। - जहाँ अन्यार्थ प्रकृत रस के विरूद्ध हो । राममन्मथशरेण ताडिता दुःसहेन हृदये निशाचरी । गन्धवद्द् रूधिरचन्दनोचिता जीवितेश्वसतिं जगाम सा ।। 2 अस्थानासमास दुःस्थित यहाँ प्रकृत वीभत्स रस के विरूद्ध शृंगार रस का व्यञ्जक अन्यार्थ - वही, पृ. 136 वही. पृ. 136 वही. पृ. 139 अनुचित स्थान पर समाप्त करना । अद्यापि स्तनशैलदुर्गविषमे सीमन्तिनीनां हदि । स्थातुं वाञ्छति मान एवं धिगिति क्रोधादिवालोहितः ।। प्रोद्यद्दूरतरप्रसारितकरः कर्षत्यसौ तत्क्षणात् । फुल्लत्कैखको शैनिस्सरदलिश्रेणीकृपापं शशी 113 231
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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