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मात्र हो, वह भावाभास कहलाता है। वहाँ वास्तविक भाव का अभाव होता है। आचार्य मम्मट ने देवादिविषयक रति को भाव कहा है तथा आदि पद से मुनि, गुरू, नृप, पुत्रादि विषयक रति का गहए किया है। वे केवल कान्ता विषयक रति की अभिव्यक्ति को ही श्रृंगार मानते हैं।
इसी प्रकार का विवेचन जैनाचार्य हेमचन्द्र ने किया है। वे लिखते है कि "देवमुनिगुरूनृपपुत्रादिविषया तु भाव एव न पुना रसः। 2 आ. हेमचन्द्र ने आ. मम्मट का ही शब्दशः अनुकरप किया है।
हेमचन्द्राचार्य के अनुसार इन्द्रियरहित तथा तिर्यगादि में क्रमशः संभोगादि रस तथा भाव का आरोप करना रताभास तथा भावाभास कहलाता है। इसी प्रकार संभोगादि रसों एवं भावों के अनुचित रूप से वर्णन अर्थात परस्पर अनुराग का अभाव होने पर भी अनुरक्ति वर्पन इत्यादि को भी रताभास व भावाभास कहा है।*
1. रतिर्देवादिविषया व्यभिचारी तथाऽणित : भावः प्रोक्तः।
आदि शब्दान्मुनिगरूनृपपुत्रादिविषया, कान्ता विषया तु व्यक्ता अंगारः।
काव्यप्रकाश, वि0 4/35 व वृत्ति 2. काव्यान, वृत्ति, पृ. 107 3 निरिन्द्रयेषु तिर्यगादिक्षु, चारोपाद्रत भावाभासो।
वही, 2/54 + वही 2/55