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________________ 201 हो सकता है। उसका निर्णय सदय पुरुषों की व्यवस्थानुसार ही हो सकता है. जैसे, रति के विषय में ही अनौचित्य के अनेक रूप हो सकते हैं। एक स्त्री का एक पुरूष के प्रति प्रेम उक्ति है, परन्तु यदि एक स्त्री का अनेक पुरूषों के पति प्रेम का वर्पन किया जाय तो वह अनुचित होने से "रसाभास* की कोटि में आयेगा। इसी प्रकार गुरू आदि को आलम्बन बनाकर हाय रत का प्रयोग, अथवा वीतराग को आलम्बन बनाकर करूप आदि का प्रयोग, मातापिता विषयक रौद्र तथा वीररस का प्रयोग, वीरपुरुषगत भयानक का वर्पन, यज्ञीय पशु आदि को आलम्बन बनाकर वीभत्स को, ऐन्द्रनालिक आदि विषयक अदभूत और चाण्डाल आदि विषयक शान्तरत का प्रयोग भी अनुचित माना गया है, इसलिये वे सब रसाभास के अन्तर्गत होते हैं।' साहित्यदर्पपकार ने भी इसी प्रकार का वर्पन किया है।2 इस प्रकार जहाँ रस का आभात मात्र हो, वह रसाभात कहलाता है। वहाँ वास्तविक रस का अभाव होता है। इसी प्रकार जहाँ भाव आभात 1. काव्यप्रकाश, विश्वेश्वर - पृ. 141-42 2. उपनायकसस्थायां मनिगरूपत्नीगतायां च। बहुनायकविषयायां रतौ तथानुभयनिष्ठायाम्।। प्रतिनायनिष्ठत्वे तददधपात्र तिर्यगादिगते। अंगारेऽनौचित्यं रौद्रे गुर्वादिगते कोपे।। शान्ते च हीननिष्ठे गर्वाधालम्बने हास्ये। बङ्मवधापुत्साधमपात्रगते तथा वीरे।। उत्तमपात्रगतत्वे भयानके यमेवमन्यत्र। साहित्यदर्पप, 3/263-266 का पूर्वार्द
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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