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के कयन का अभिप्राय मात्र इतना है कि स्थायिभाव के लिये स्थायित्व अपेक्षित है और व्यभिचारिभाव के लिए नहीं। अत: जो स्थायिभाव है वह व्यभिचारिभाव नहींहो सकता क्यों कि स्थायित्व व्यभिचारिभाव का लक्षण नहीं है और जो व्यभिचारिभाव है वह स्थायिभाव नहीं हो सकता क्यों कि अस्थायी रहना स्थायिभाव का लक्षप नहीं है। अतः निर्वेद शान्तरस का स्थायिभाव नहीं अपितु केवल व्यभिचारिभाव ही है। उस दशा में शान्तरस का स्थायिभाव शम होगा।
ग्लानि : पीडा का नाम ग्लानि है। वह वाक्य व श्रमादि विभावों से उत्पन्न होती है और कृशता तथा कम्पादि अनुभावों को उत्पन्न करने वाली होती है।
अपस्मार : पिशचा दिप गहों तथा वातपित्तादिरूप दोषों की विषमता से उत्पन्न बैचैनी अपस्मार कहलाती है और वह गर्हित व्यापारों से युक्त होता है।
शंका : अपने या दूसरे के कुकर्मों से मन का कम्पन शका कहलाती है। और वह श्यामता आदि को उत्पन्न करने वाली होती है।
असया : देषादि के कारण सद्गुणों को (दसरे के )सहन न कर सकना असूया है और वह सदा दूसरे के दोषों को देखने वाली होती है।
मद : ज्येष्ठादि में मधजन्य और निद्रा, हात्य तथा रोदन को उत्पन्न करने वाला आनन्द "मद' कहलाता है।