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________________ 192 अनभाव भी व्यभिचारिभाव हो सकते हैं।' पूर्वोक्त तैतीस व्यभिचारिभावों का आचार्य रामचन्द्र-गुपचन्द्र ने इस प्रकार लक्षण प्रस्तुत किया है - निर्वेद - तत्त्वज्ञान परक चित्तवृत्ति का नाम निर्वेद है। वह क्लेशों से उत्पन्न विरसता के कारप होता है और श्वास तथा ताप का कारप होता निर्वेद के वर्पन - प्रसंग में नाट्यदर्पपकार, आचार्य मम्मट द्वारा जो निर्वेद को व्यभिचारिभाव स्वीकार करने के साथ-साथ, शान्त रस का स्थायिभाव स्वीकार किया गया है - उसका सण्डन करते लिखते हैं कि - "मम्मट ने तो व्यभिचारिभावों के निरूपप के प्रसंग में निर्वेद को शान्त रत का स्थायिभाव कहा है और रस-दोष प्रसंग में प्रतिकूल विभावादि का ग्रहण करना दोष है" इस प्रकार कहकर शान्त रस के प्रति निर्वेद रूप व्यभिचारिभाव का गृहप करके स्वयं ही अपने कथन का खण्डन कर लिया है। यहाँ नाट्यदर्पपकार 1. वही, 3/27, विवरप, पृ. 331 2. हि नाट्यदर्पप, 3/28-44 मम्मटस्तु व्यभिचारिकथनप्रस्तावे निवेदव्यशान्तरसं प्रति स्थायितां, प्रतिकलविभावादिपरिग्रहः' इत्यत्रत तमेव प्रति व्यभिचारितां च, बवापः स्ववचन विरोधेन प्रतिहत इति। वही, विवरप, पृ. 332
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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