________________
191
क्षुधा - तृष्पा आदि का ग्ला नि ।।
उन्होंने तैतींत प्रकार के व्यभिचारिभावों को स्थिति, उदय, प्रशम, संधि व शबलता धर्म वाला बतलाकर सभी के पृथक् पृथक उदाहरप प्रस्तुत किये है तथा आगे के तैतीस सूत्रों में उनके विभाव और अनुभावों को सोदाहरण प्रतिपादित करते हुए व्यभिचारिभावों के स्वरूप का विवेचन किया है। 2
रामचन्द्र-गुणचन्द्र का कथन है कि - रसोन्मुख स्था यिभाव के प्रति विशेष रूप से अनुकूल आचरप करने वाले (स्थायिभाव के पोषक) व्यभिचारिभाव कहलाते हैं। अथवा स्थायिभाव के विधमान होने पर भी कभी कोई व्यभिचारिभाव नहीं होता है इसलिये व्यभिचारी होने से व्यभिचारिभाव कहलाते हैं अर्थात अपने विभाव के होने पर भी न होने से और न होने पर भी होने से ये अपने विभावों के व्यभिचारिभाव कहलाते हैं। इनके अनुसार व्यभिचारिभावों की संख्या तैतीस है। किन्तु आगे वे लिखते हैं कि इनके अतिरिक्त अन्य व्यभिचारिभाव भी हो सकते हैं, जैसे - क्षुधा, प्यास, मैत्री, मुदिता, श्रद्धा, दया, उपेक्षा, रति, सन्तोष, क्षमा, मुदता, सरलता, दाक्षिण्य आदि तथा स्थायिभाव तथा
1. वही, 2/19 वृत्ति 2. वही, 2/20-52 3 सोन्मुखं स्थायिनं प्रति विशिष्टेनाभिमख्येन चरन्ति वर्तन्ते इति व्यभिचारिपः
यद्वा व्यभिचरन्ति स्थायिनि सत्यपि केऽपि कदापि न भवन्तीति व्यभिचारिणः, स्वस्वभावव्यभिचारिषः भावे भावात. अभावे भावाच्च।।
हि नाट्यदर्पण, विवरण, पु, 3034 • वही 3/25-27 .