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________________ अपस्मार, निर्वेद, आवेग, वितर्क, असूया और मरण । आ. हेमचन्द्र ने पर्यायवाची शब्दों के द्वारा इनका अर्थ स्पष्ट किया है और वही इनके लक्षण कहे जा सकते हैं। उनके अनुसार धृति संतोष है। स्मृति स्मरण है । मति अर्थ का निश्चय करना है। चित्त का संकोच मन का सन्ताप है। मन का डा है। अर्थ की अप्रतिपत्ति ही जड़ता है। विषाद मन की पीड़ा को कहते हैं । मद - आनन्दसंमोहभेद है। व्याधि संमीलन ही निद्रा है । निद्रा की गाढावस्था ही सुप्त है। काल की अक्षमता औत्सुक्य है। आकारगोपन ही अवहित्था है। अनिष्ट की उत्प्रेक्षा ही शंका है। चित्त का अनवस्थान चपलता है । पुरुषार्थों में अनादर ही आलस्य है । चित्त का प्रसन्न होना ही हर्ष है। दूसरे की अवज्ञा गर्व है। चण्डत्व ही उगता है। निद्रा समाप्ति ही प्रबोध है। बल का अपचय ग्लानि है। अनोजस्य ही दैन्य है । खद ही श्रम है। चित्त का विप्लव उन्माद है । मढ़ता ही मोह है। ध्यान करना ही चिन्ता है। प्रतिचिकीर्षा ही अमर्ष है । चित्त का चमत्कार ही त्रास है। आवेश ही अपस्मार है। स्वावमाननस ही निर्वेद है। संभ्रम ही आवेग है। संभावना ही वितर्क है। अक्षम ही असूया है। मरपता मृति या मरप है । ' - 1. काव्यानुशासन, 2/19 190 - हेमचन्द्र ने उपर्युक्त तैतींस व्यभिचारिभावों में ही अन्य व्यभिचारिभावों का अन्तर्भाव कर लिया है। यथा - दम्भ का अवहित्था में, उद्वेग का निर्वेद में,
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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