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________________ - विशेष रूप से रस के चारों ओर उन्मुख होकर गतिशील होते हैं, वे व्यभिचारिभाव कहलाते हैं, इनका संचरण, वाणी, अंग और सत्वादि के द्वारा होता है। उनके अनुसार व्यभिचारिभावों की संख्या तैतींस है निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिन्ता, मोह, स्मृति, धृति, ब्रीडा, चलपता, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, सुप्त, प्रबोध, अमर्ष, अवहित्था, उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास और वितर्क । । 189 जैनाचार्य हेमचन्द्र ने व्यभिचारिभाव का जो स्वरूप प्रस्तुत किया हैउसका तात्पर्य यह है कि "विविध धर्मों की ओर उन्मुख होकर संचरणशील होने के कारण तथा अपने धर्म का अर्पण करके स्थायिभावों का उपकार करने वाले व्यभिचारिभाव कहलाते हैं। 2 भरतमुनि की परंपरा का अनुकरण करते हुए हेमचन्द्र ने 33 प्रकार के व्यभिचारिभावों का प्रतिपादन किया है जो इस प्रकार हैं धृति, स्मृति, मति, व्रीडा, जाइय, विषाद, मद, व्याधि, निद्रा, सुप्त, औत्सुक्य, अवहित्था, शैका, चपलता, आलस्य, हर्ष, गर्व, उगता, प्रबोध, ग्लानि, दैन्य, श्रम, उन्माद, मोह, चिन्ता, अमर्ष, त्रास I. नाट्यशास्त्र, 6 / 18-21 2. विविधाभिमुख्येन स्थायिधर्मोपजीवनेन स्वधर्मापयेन च चरन्तीति व्यभिचारिणः । काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 128
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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