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________________ 188 नरेन्द्रप्रभसरि अनुभावों की गपना करते कहते हैं कि - जो कटाक्ष - पात, भुजाक्षेप, भभमण, मुख-भमप आदि घोर भावलीला आदिरूप जो स्तम्मादि सात्त्विक भाव हैं तथा जिनके द्वारा सामाजिक स्थायिभावों व संचारिभावों का अनुभव करते हैं, वे मेखला - स्खलन, श्वास, सन्ताप, जागरप, नथुनों का फड़कना और देवोपालम्भ आदि सभी अनुभाव हैं।' इस प्रकार इन्होंने उन्हीं आठ सात्विक भावों को गिनाया है जो रामचन्द्रगुपचन्द्र द्वारा पूर्वोल्लिखित हैं। अन्तर मात्र ये है कि नरेन्द्रप्रभसरि ने प्रत्येक सातिपक भाव (अनुभाव ) का केवल उदाहरप प्रस्तुत किया है लक्षप नहीं जबकि रामचन्द्रगुपचन्द्र ने केवल लक्षण प्रस्तुत किया है उदाहरप नहीं। ___ वाग्भट दितीय ने प्रत्येक रस के लक्षप पतंग में उस - उस रस के अनुभावों का उल्लेख किया है। मावदेवतरि ने भी रसों के अनुसार नौ अनुभावों का नामोल्लेख किया है। व्यभिचारिभाव - लौकिक जगत में जो स्थिति सहकारिभावों की होती है वही स्थिति काव्य जगत में व्यभिचारिभावों की होती है। व्यभिचारिभावों का दूसरा नाम संचारीभाव है। संचरपशील होने से इनकी संचारिभाव क्षा सार्थक ही है। आचार्य भरत ने व्यभिचारिमाव की क्याख्या करते हुए लिया है कि "अभि इत्येतावुपसर्गो। चर गतौ धातुः। पात्वर्यवागंगसत्वोपेतान विविधमभिमुखेन रतेषु चरन्तीति व्यभिचा रिपः। तात्पर्य यह है कि जो 1. अलंकारमहोदधि - 3/28-29 2. नाट्यशास्त्र, 2/27
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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