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दे रसों के स्थायिभावों व व्यभिचारिभावों के कार्यभूत अनुभावों का प्रतिपादन करते लिखते हैं -- वेपधु (कम्प), स्तम्भ, रोमांच, स्वरभेद, अश्रु, मूर्च्छा, स्वेद और वैवर्ण्य आदि रस से उत्पन्न होने के कारण अनुभाव कहलाते हैं।। आदि शब्द से प्रसन्नता, उच्छ्वास, निश्वास, रोना-चिल्लाना, उल्लुकसन) बाल नोचना, भूमि खोदना, लोटना-पोटना, नाखून चबाना, भुकुटि, कटाक्ष, इधर-उधर या नीचे देखना, प्रशंसा करना, हँसना, दान, चापलूसी और मुख का लाल पड़ जाना आदि अनुभाव भी गृहीत होते हैं। उनके अनुसार कहीं स्थायिभाव तथा व्यभिचारिभाव भी अनुभाव हो सकते हैं। रसों के स्थायिभाव तथा व्यभिचारिभावों के और अनुभावों के भी यथायोग्य सहस्त्रों अनुभाव हो सकते हैं। 2
पूर्वकथित वेपथु आदि आठ अनुभावों का लक्षण वे इस प्रकार देते
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वेपथु - भयादि के द्वारा शरीर का किंचित् विचलित हो जाना है। 3
स्तम्भ
हर्षादि के कारण यत्न करने पर भी अंगों की क्रिया का
न होना तथा विषादूसूचक "हा" इत्यादि शब्दों का होना स्तम्भ है। 4
1.
हि. नाट्यदर्पण, 3/45
2.
हि. नाट्यदर्पण विवरण पृ. 348
3. भयादेर्वेपथुर्गात्रस्पन्दो वागादिविक्रियः । वही, 3/46
4. यलेऽप्यंगा क्रिया स्तम्भो हषदिः, हा! विषादवान् ।। वही, 346