SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 185 अनभाव - अनुभाव का शाब्दिक अर्थ है - भाव के पश्चात उत्पन्न होने वाला। भरतमुनि के अनुसार अपने - अपने कारप से उबुद्ध इत्यादि को प्रकाशित करने वाला भाव "अनुभाव' कहलाता है। अनुभाव स्थायी से जन्य होता है। जैसे - विभाव स्थायी का कारण होता है, उसी प्रकार अनुभाव स्थायी का कार्य कहलाता है। भरतमुनि के अनुसार - ये अभिनय को वापी, अंग और सात्त्विक भावों के द्वारा अनुभूति योग्य बनाते हैं, अत: अनुभाव कहलाते हैं - अनुभाव्यते नेने वागंगमत्वकृतोऽभिनय इति ।' धनंजय ने रत्यादि स्थायिभावों के संतूचक विकारों को अनुभाव कहा है। जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने कुछ रतों के अनुभावों का उल्लेख किया है। हेमचन्द्र ने अनुभाव का लक्षप इस प्रकार दिया है कि - स्थायिभाव और व्यभिचारिभावरूप सामाजिक सहृदय की चित्तवृत्ति विशेष का अनुभव करते हुए जिनके द्वारा साक्षात्कार किया जाता है, वे कटाक्ष-पात और भगाक्षेपादि अनुभाव कहलाते हैं। इस प्रसंग में रामचन्द्र-गुणचन्द्र का कथन है कि अनु । अर्थात लिंग के निश्चय के बाद (रत को) मावित अर्थात बोधित करने वाले होने से (कार्यरूप) स्तम्भादि रस का कार्य अनुभाव कहलाते हैं। फिर आगे 1. हिन्दी नाट्यशास्त्र, पृ. 374 2. हिन्दी दशरूपक, 4/3 3- काव्यानुशासन, 2/1 वृत्ति + हिन्दी नाट्यदर्पण, 3/8 विवृत्तिा
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy