SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 184 रत्यादि स्थायिभाव को विशेष रूप से भावित करते हैं अर्थात् विशेष रूप से आविर्भूत करते हैं वे ललना और उद्यानादिरूप क्रमशः विभाव कहलाते हैं। आ. नरेन्द्रप्रभरि का कथन है कि युवक व युवती के सामने उपस्थित होने पर जिसको आलम्बन करके स्थायी और व्यभिचारीरूप भावों का जो क्षणभर में अनुभव कराते हैं, वे आलम्बन विभाव कहलाते हैं। 2 इसी प्रकार ज्योत्स्ना, उद्यानादि समृद्धि को आश्रय करते हुए स्थायी और व्यभिचारिरूप भावों को जो अत्यधिक उद्दीपित करते हैं, वे उद्दीपन विभाव कहलाते हैं। 3 वाग्भट द्वितीय ने प्रत्येक रस के लक्षणप्रसंग में तदसम्बन्धी रतविषयक विभावों का उल्लेख मात्र किया है। भावदेवसूरि ने विभाव को रस का कारण बतलाते हुए नौ विभावों का एक पद्य में संग्रह करके विभावों का संकेत मात्र किया है। # I. वासनात्म्या स्थितं स्थायिनं रसत्वेन भवन्तं विभावयन्ति अविर्भावना विशेषेष प्रयोजयन्ति इति आलम्बन - उद्दीपनरूपाललनोद्यानादयो विभावाः । हि. नाट्यदर्पण, 3/8 विवृत्ति 2. अलंकारमहोदधि, 3/26 3. वही, 3/27 4 काव्यालंकारसार, 8 / 2-3
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy