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शान्तरस का था यिभाव निर्वेद को न स्वीकार कर शम को माना है, जो यथार्थता के सन्निकट है। नरेन्द्रप्रभसरि ने रति के जिन नैसर्गिकी आदि बारह भेदों को स्वीकार किया है, वे अन्यत्र अनुपलब्ध हैं।
विभाव - विशेष प्रकार के भाव का नाम विभाव है, यह रत्यादि स्था यिभावों की उत्पत्ति में कारप है। आचार्य मरत ने विभाव का अर्थ विज्ञान किया है तथा कारप, निमित्त और हेतु को विभाव का पर्यायवाची कहा है।' जिसके द्वारा वाचिक, कापिक तथा सात्त्विक अभिनय विभाजित किये जाते हैं, वह विभाव कहलाता है। 2
जैनाचार्य वाग्मट प्रथम ने कुछ रसों के विभावों की गपना की है। हेमचन्द्र ने लिखा है कि वाचिक, कायिक तथा सात्त्विक अभिनयों के द्वारा जो स्थायी और व्यभिचारी चित्तवृत्तियों को विशेष रूप से ज्ञापित करते हैं, वे विभाव कहलाते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं - आलम्बन विभाव तथा उद्दीपन विभावा ललनादि आलम्बन और उद्यानादि उद्दीपन विभाव है।' रामचन्द्रगुपचन्द्र के मत में - वासना रूप से स्थित, रसरूपता को प्राप्त होने वाले
1. नाट्यशास्त्र, पृ. 80 2. वही, पृ. 80 3 बहवोऽर्था विभाव्यन्ते वांगंगाभिनयाश्रितः। अनेन यस्मात्तेनायं विभाव इति संज्ञितः।।
वही, 1/4 + काव्यानुशासन, 2/। वृत्ति