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भय - चित्त की विकलता ही भय है।
जुगुप्सा - कुत्सित का निश्चय हो जाना जुगप्ता है।
विस्मय - उत्कृष्ट का निश्चय हो जाना विस्मय है।
पाम - कामना का अभाव शम है।
नरेन्द्रप्रभसरि ने रति के नैसर्गिकी, सांसर्गिकी, औपमा निकी आध्यात्मिकी, आभियोगिकी साम्पयोगिकी,अभिमानिकी तथा पशब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध इन पांच मेदों वाली वैषयिकी रति का सोदाहरप उल्लेख किया है।' रति का इस प्रकार सभेद विवेचन अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता है। इसी प्रकार उन्होंने हास आदि स्थायिभवों के भी स्मित, विहसित, अपहसित आदि भेदों की संभावना की है। वे स्थायिभाव तथा व्यभिचारिभाव के अन्तर को स्पष्ट करते लिखते हैं कि अपने अपने रस से अन्यत्र ( दूसरे रस में) न जाने से तथा प्रत्येक समय (सर्वकाल) अपने (रस) में रहने से और अव्यभिचारि होने से रत्यादि भाव स्थायित्व की संज्ञा को प्राप्त होते हैं अर्थात स्थायिभाव कहलाते हैं तथा हर्षादि भाव इसते विपरीत स्वभाव वाले होने से व्यभिवारिभाव कहलाते
इनने
I. अलंकारमहोदधि, 3/25 वृत्ति 2. एवं हातादीनामपि हिमत - विहसितापहसितादयः कतिचिद् भेदःसम्भवन्ति।
वही, 3/25 वृत्ति स्वस्वरसादन्यत्रानभिगामित्वात सर्वकालमात्मनः सब्रह्मचारित्वाच्च रत्यादीनां स्थायित्वस, हर्षादीनां तु तदिपरीतत्वाद व्यभिचारित्वम्। .. दही, 3/25 वृत्ति