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हेमचन्द्र ने शान्त रस का स्थायिभाव शम मानते हुए कहा है कि यद्यपि
कहीं - कहीं शम की अप्रधानता होती है फिर भी वह, व्यभिचारित्व रूप को प्राप्त नहीं होता, सर्वत्र स्वभावत्वेन स्थायित्व रूप में ही रहता है।'
आचार्य रामचन्द्र-गुपचन्द्र ने पूर्वोक्त नौ स्थायिभानों का स्वरूप निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया है।
रति - स्त्री और पुरूष के परस्पर प्रेम, जिसका पर्यायवाची आस्था -बन्ध भी है को रति कहते हैं। यह (रति) कामावस्था से युक्त, अभिलाष मात्र व्यभिचारात्मक रति तथा देवता, बन्धु और मनोहर वस्तु में होने वाली
प्रीति रूप रति से विलक्षप है।
हास - रंजन व उन्माद से संयुक्त चित्त का विकास हास है।
शोक - निर्वेदानुविद दुःख ही शोक है।
क्रोध - अपकार करने की इच्छा और घृपा का कारप तथा परिताप का आवेश क्रोध है।
उत्साह - धर्म, दान व युद्धादि कार्यो में आलस्य न करना उत्साह
1. शमस्य तु यद्यपि क्वचिदपाधान्यम तथापि न व्यभिचारित्वं सर्वत्र
प्रकृतित्वेन स्थायितमत्वात ।
___काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 126 2. हि नाट्यप 3/24 विवृत्तिा