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वाग्भट प्रयम के अनुसार उत्साह नामक स्थायिभाव वाला वीररस तीन प्रकार का होता है-- धर्मवीर, युद्दीर व दानवीर। उन्होंने दी ररत के नायक को समस्त श्लाघनीय गुपों से युक्त माना है।'
आ. हेमचन्द्र ने वीररस का लक्षप व उसके भेदों की गणना करते हुए लिया है कि नय (नीति) आदि विभाव वाला, स्थैर्य (स्थिरता) आदि अनुभाव वाला तथा धृत्यादि व्यभिचारि भाव वाला उत्साह नामक स्था यिभाव चर्वपीयता को प्राप्त होने पर, धर्मवीर, दानवीर और युद्धवीर भेद से तीन प्रकार का वीररस कहलाता है। आदि पद से गाय विभावादि का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने वृत्ति में प्रतिनायकवर्ती नय, विनय, अंसमोह, अध्यवसाय, बल, शक्ति, प्रताप, प्रभाव, विक्रम, अधिक्षेप आदि विभाव, स्थैर्य, धैर्य, शौर्य, गांभीर्य, त्याग, वैशास्य आदि अनुभाव तथा धृति, स्मृति, उग्रता, गर्व, अमर्ष, मति, आवेग, हर्ष आदि व्यभिचारिभाव की परिगणना की है। नय विनय आदि का स्वरूप विवेक टीका में प्रस्तुत किया है।' तथा वीररत के तीन प्रकार के भेदों की पुष्टि में नाट्यशास्त्र की कारिका - 'दानवीरं धर्मवीरंयुद्धवीरं तथैव च। रसं दीरमपि प्राह बद्दमा त्रिविधमेव हि।।' प्रस्तुत की है। उन्होंने तीनों भेदों का एक ही उदाहरण"अजित्वा सार्पवामुर्वीममनिष्ठा...." इत्यादि उधत किया है।'
1. वाग्भटालंकार, 5/21 2. काव्यानुशासन, 2/14 - वही, वृत्ति , पृ. 117 + वही, टीका, पृ. 117 5 वही, वृत्ति , पृ. 118