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________________ 167 अन्त में वे रौद्र तथा वीररस का अन्तर भी स्पष्ट कर देते हैं।' रामचन्द्रगुपचन्द्र का कथन है कि पराक्रम-शत्रुमण्डलादि में आक्रमण, बल-सेना समुदाय, न्याय-सामादि उपायों का सम्यक् प्रयोग, यश-सर्वत्र । शौर्य जन्य ख्याति, तत्त्वविनिश्चय - यथार्थ बातों का या वीरोचित बातों का निर्पय आदि विभावों से उत्साह स्थायिक वीररस उत्पन्न होता है। इसमें धैर्य-धोर संक्ट आने पर भी अविचलित रहना या निर्भीक रहना अथवा बुद्धिबल सन्तुलन रखना, सहायान्वेषणादि - अनुभाव हैं और धृति - मति - गर्व-स्मृति, तर्क रोमांचादि व्यभिचारी भाव हैं। इन्होंने वीररस के निश्चित भेद नहीं माने हैं, अपितु युद्ध, धर्म, दान आदि गुपों तथा प्रतापाकर्षपं आदि उपाधि भेदों से इसके अनेक भेद स्वीकार किए हैं।' नरेन्सभरि का वीररत विवेचन आ. हेमचन्द्र के समान है।' वाग्भट द्वितीय का वीररस विवेचन भी हेमचन्द्र सम्मत है। 1. इह चापत्यकनिमग्नतां स्वल्पसंतोष मिथ्याज्ञानं चापास्य यस्तत्तव निरूपोऽसंमोहाध्यवसायः स एव प्रधानतयोत्साहहेतु ः। रौद्रं तु . ममताप्राधान्याशास्त्रितानुचितयुदाधपीति मोहविस्मयप्राधान्य मिति विवेकः। वही, वृत्ति , पृ. 118 2. हि. नाट्यदर्पप, 3/16 3. वही, 3/16 विवरण + न्यायादिबोध्यः स्थैर्यादिहेतुर्धत्याधुपस्कृत:। उत्साहो दान-युध-धर्मभेदो वीररसः स्मृतः।। अलंकारमहोदधि, 3/20 5. काव्यानुशासन - वाग्भट, पृ. 56
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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