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भ्रुकुटि चढ़ाना, शत्रुओं की निन्दा तथा मर्यादा का उल्लंघन ये उसके
अनुभाव हैं। हेमचन्द्र ने स्त्री हरप, आदि विभाव, नेत्रों की लालिमा आदि अनुभाव और उग्रतादि व्यभिचारिभावों से युक्त क्रोधरूप स्थायिभाव वाला रौद्र रस कहा है।' आदि पद से स्त्रियों का अपमान, देश, जाति, अभिजन, विद्या, कर्म, निन्दा, असत्यवचन, स्वभृत्य अधिक्षेप, उपहास, वाक्यपारूष्य, द्रोह, मात्सर्य आदि विभाव, नयनराग, भृकुटीकरण, दन्तोष्पीडन, गण्डस्फुरण, हाथों को रगड़ना, मारना, दो टुकड़े कर देना (पाटन), पीडन, प्रहरण, आहरण, शस्त्रसंपात, रूधिर निकाल देना, छेदन आदि अनुभाव तथा उग्रता, आवेग, उत्साह, विबोध, अमर्ष व चपलता आदि व्यभिचारिभावों को समाविष्ट किया गया है। 2
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शत्रु के प्रति शस्त्रादि व्यापार, असत्य, बध, बन्ध, वाक्पारुष्यादि और परगुणों के असूया असहनजन्य मात्सर्य - विशेष, विद्या, कर्म, देश, जात्यादि की निन्दा व अपनीति आदि विभावों से क्रोध स्थायिक रौद्र रस होता है। इसका अभिनय अपने ही दांतों ते ओष्ठों को काटने, भुजाओं को ठोकने, चीरफाड़ करने, शस्त्र प्रहार करने, मस्तक, भुजा, कबन्ध और कन्धों को हिलाने, मारने, पीटने, टुकड़े कर डालने, रक्त निकालने,
भौंहें चढ़ाने, हाथ मलने आदि अनुभावों के द्वारा किया जाता है। उगता,
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1. दारापहारादिविभावो नयनरागाद्यनुभाव औग़यादि व्यभिचारी क्रोधो रौद्रः काव्यानुशासन, 2 / 13
वही, वृत्ति, पृ. 116