________________
विवर्णता, निश्वास, गात्र शिथिलतादि अनुभाव होते हैं। निर्वेद ग्लानि, चिन्तादि व्यभिचारी भाव होते हैं । ।
आ. नरेन्द्रप्रभसूरि भी इष्ट-नाश, अनिष्ट संयोगादि से उत्पन्न दैवोपालम्भ, निःश्वास, अश्रुकन्दनादि अनुभावों, निर्वेद-ग्लानि, दैत्यादि व्यभिचारिभावों से युक्त शोक रूप स्थायिभाव वाला करूण रस मानते हैं। 2
163
आ. वाग्भट द्वितीय ने आचार्य हेमचन्द्र के समान ही करूण रस का विवेचन किया है जिसमें करुण रस के विभाव, अनुभाव व व्यभिचारी भावों का उल्लेख करते हुए उसके स्थायिभाव पर प्रकाश डाला है। 3
रौद्र रस : रौद्ररस का स्थायिभाव क्रोध है। शत्रु द्वारा किये गये अपकार ते इसकी उत्पत्ति होती है। आचार्य भरत इसे राक्षस, दानव और उदुत पुरुषों के आश्रित मानते हैं। यह रस क्रोध, घर्षण, अधिक्षेप, अपमान, झूठ बचन, कठोर वाणी, द्रोह व मात्सर्य आदि विभावों से उत्पन्न होता है। 4
-
जैनाचार्य वाग्भट प्रथम के अनुसार शत्रु द्वारा तिरस्कृत होने पर रौद्र रम उत्पन्न होता है।' इसका नायक भीषण स्वभाववाला, उग्र और क्रोधी होता है। अपने कन्धे को पीटना, आत्मश्लाघा, अस्त्रादि का फेंकना,
1. हि. नाट्यदर्पण, 3/14 व विवरण
2. अलंकारमहोदधि, 3/18 व वृत्ति
30
काव्यानुशासन वाग्भट, पृ. 55
40 नाट्यशास्त्र, 6/63, पृ. 75
5. वाग्भटालंकार, 5/29-30
-