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________________ 162 हेमचन्द्राचार्य के अनुसार इष्टविनाश आदि विभाव वाला, देवोपालम्म आदि अनुभाव तथा निर्वेद-ग्लानि आदि दुःसमय व्यभिचारिभाव वाला शोक नामक स्थायिभाव चर्वपीयता को प्राप्त होने पर करूप रप्त कहलाता है| आदि पद से इष्टवियोग,अनिष्ट संपयोग, विभाव, देवोपालम्भ, निःश्वासता, नवमुसशोषप, स्वरभेद, अश्रुपात, वैवर्ण्य, प्रलय, स्तम्भ, कम्प, भलुण्ठन, अंगों का ढीला पड़ जाता तथा आक्रन्दन आदि अनुभाव तथा निर्वेद, ग्लानि, चिन्ता, औत्सुक्य, मोह, श्रम, त्रास, विषाद, दैन्य, व्याधि जड़ता, उन्माद, अपस्मार, आलस्य, भरप प्रभृति दुःखमय ये व्यभिचारिभाव हैं। 2 करूपरत के उदाहरप रूप में उन्होंने कुमारसंभव का "अयि जीवितनाथ'.... " इत्यादि लोक प्रस्तुत किया है। रामचन्द्रगुपचन्द्र के अनुसार - मृत्यु - बंधन - धन शादि इष्ट वस्तु के नाश तथा शाप - दिव्य प्रभाव वालों का आक्रोश विशेष और व्यसन - अनादि जो अनिष्ट की प्राप्ति है। इन विभावों से उत्पन्न होने वाला - शोक स्थायिक करूप रस होता है। इसमें वाष्प, अ, 1. इष्टनाशा दिविभावो देवोपालम्भाउनुभावो दुःखमय व्यभिचारी शोक :करूपः।। ___काव्यानुशासन, 2/12 2. वही, वृत्ति , पृ. ।।6 3. वही, पृ. ।।6
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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