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आ. नरेन्द्रप्रभसूरि ने भी विकृत वैषादि, नासास्पन्दन आदि
से हास्य रस की उत्पत्ति मानी है। उनके अनुसार निद्रा, अवहित्थ, त्रपा, आलस्यादि इसके व्यभिचारी भाव होते हैं। यह आत्मस्थ व परस्थ भेद से दो प्रकार का होता है। वाग्भट द्वितीय ने हास्य के तीन भेद किए हैंस्मित, विहसित व अपहसित जो क्रमशः उत्तम, मध्यम व अधम प्रकृति में पाया जाता है। 2
उपर्युक्त विवेचन से ये स्पष्ट होता है कि इन जैनाचार्यों ने हास्य रस की उत्पत्ति विकृत वेषादि से ही स्वीकार की है तथा हास्य के भेद भी वही स्वीकार किए हैं जो अन्याचार्यों द्वारा मान्य हैं।
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करूण
रस : करुण रस का स्थायिभाव शोक है। इष्ट वस्तु के नाश अथवा अनिष्ट की प्राप्ति होने पर इस करुण रस का आविर्भाव होता है। आचार्य भरत ने शाप, क्लेश, विनिपात, इष्टजन-वियोग, विभाव-नाश, वध, बन्ध, विद्रव, उपघात और व्यसन आदि विभावों से करूप रस की उत्पति मानी है। 3
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जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने शोक से उत्पन्न रस को करूण कहा है। जिसमें पृथ्वी पर गिरना, रूदन, पीलापन, मूर्च्छा, वैराग्य, प्रलाप और अश्रुओं का वर्णन किया जाता है। 4
1. अलंकारमहोदधि, 3 / 17 एवं वृत्ति
2.
काव्यानुशासन, वाग्भट - पृ. 55
3.
नाट्यशास्त्र, 6/61, पृ. 75 वाग्भटालंकार, प / 22
4.